05 December 2012

प्रस्तावना - हाइकु-1989 : प्रो० सत्यभूषण वर्मा


प्रस्तावना - हाइकु-1989 :  प्रो० सत्यभूषण वर्मा

हाइकु मूलतः एक जापानी काव्य रूप है जो आज विश्व–साहित्य की निधि बन चुका है।
विश्व–मञ्च पर जापान के अभ्युदय के साथ जापानी साहित्य की ओर भी पश्चिम जगत का ध्यान गया। हाइकु की असमान तीन पंक्तियों के कारण योरोप ने हाइकु को मुक्त–छन्द का आरम्भिक रूप समझा और योरोप के कविता–प्रेमी समाज में हाइकु को मुक्त–छन्द का आरम्भिक रूप समझा और योरोप के कविता–प्रेमी समाज में हाइकु चर्चित हो उठा। आकारगत संक्षिप्तता के कारण इसे संसार की सबसे छोटी कविता घोषित किया गया। किसी ने हाइकु को प्रकृत्ति काव्य कहा‚ किसी ने इसे नीति काव्य (epigram) की संज्ञा दी। अधिकांश ने इसे प्रतीक–काव्य के रूप में ग्रहण किया। भाषागत दुर्बोधता‚ सांस्कृतिक परिवेश की भिन्नता और काव्य–संस्कारों के भेद के कारण हाइकु अनेक भ्रान्तियों के साथ पाश्चत्य काव्य–संसार में प्रविष्ट हुआ। आरम्भ के अधिकांश योरोपीय और अमरीकी अनुवाद हाइकु के साथ न्याय नहीं कर सके। शिल्प की द्वष्टि से भी अनुवादकों ने पूर्णं स्वतन्त्रता का निर्वाह किया। अतुकान्त हाइकु के अंग्रेजी में तुकान्त अनुवाद हुए हैं। 17 अक्षरी तीन पंक्तियों वाली हाइकु कविता के अनुवाद दो पंक्तियों की लम्बाई भी अनुवादक की रुचि या सुविधा के अनुसार रही है।
हिन्दी से हाइकु का प्रथम परिचय अंग्रेजी के माध्यम से हुआ। बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में हिन्दी हाइकु की अनुगूंज सुनाई देने लगी थी। 1959 में अज्ञेय के कविता–संग्रह ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ में हाइकु के अनुवाद भी हैं और हाइकु से प्रभावित कुछ स्वतन्त्र रचनाएँ भी। अनुवाद के लिए अज्ञेय ने मूल अंग्रेजी अनुवादों के साथ ‘जापानी बन्धुओं द्वारा की गयी व्याख्याओं’ का आश्रय भी लिया है‚ जिससे उनके कुछ अनुवाद बहुत अच्छे बन पडे़ हैं। अज्ञेय ने अपनी जिन कविताओं को ‘मूल पर आधारित या मूल जापानी से प्रभावित कहा है‚ उन्हें अनुवाद न मानकर अज्ञेय की स्वतन्त्र रचनाएँ कहना ही समीचीन होगा। ‘सागर मुद्रा’ में भी अज्ञेय ने हाइकु शैली से प्रभावित कुछ कविताएँ दी हैं। अज्ञेय ने अपनी रचनाओं में मुख्यतः प्रकृति बिम्ब अंकित किए हैं पर उनके प्रकृत्ति हाइकु की अपरोक्षता का अभाव है। वे स्वयं अपने दृश्य चित्रों के साथ जुड़ जाते हैं और उनकी अपनी कवि–कल्पना अथवा उनका अपना कवि रूप उनके अनुवादों पर भी हावी हो जाता है।
हाइकु के अनुवादकों में एक महत्त्वपूर्ण नाम डॉ० प्रभाकार माचवे का है। उनकी ‘भारत और एशिया का साहित्य’ पुस्तक में हाइकु की चर्चा भी है और हाइकु कविताओं के अनुवाद भी। जापान में रहकर डॉ० सत्यपाल चुघ के कविता संग्रह ‘भोरकंठ’ में कुछ  ऐसी कविताएँ है जिन पर अज्ञेय की हाइकु रचनाओं की छाया स्पष्ट है। 1970 में प्रकाशित उनके दूसरे काव्य संग्रह ‘अंधेरी आकृतियों के पार’ में ऐसी कविताओं की संख्या अधिक है और उनमें निखार भी आया है। रीवां के आदित्यप्रताप सिंह ने हाइकु के नाम से ढेरों कविताएँ स्वयं भी लिखी हैं और दूसरों से भी लिखवाई हैं। सातवें दशक में हाइकु के स्फुट अनुवाद हिन्दी की पत्र–पत्रिकाओं में यत्र–तत्र प्रकाशित होते रहे हैं। हाइकु के अंग्रेजी अनुवादों के आधार पर हाइकु के काव्य शिल्प पर समीक्षा लेख भी लिखे जाते रहे और हाइकु की चर्चा पत्र–पत्रिकाओं में होने लगी।
इन प्रयत्नों से हाइकु चर्चित तो रहा पर उसके मर्म को समझने वाले कम ही रहे। हाइकु की पहचान अंग्रेजी के माध्यम से रही और मूल के ज्ञान के बिना वह पहचान सतही बनी रही।
हाइकु शुद्ध अनुभूति की‚ सूक्ष्म आवेगों की अभिव्यक्ति की कविता है। प्रकृत्ति काव्य नहीं है‚ अपितु प्रकृत्ति के माध्यम से जीवन में नित्य अनुभूत शाश्वत सत्यों की अभिव्यक्ति की कविता है। ऋतुबोध हाइकु की विशिष्ट पहचान है। हाइकु के प्रकृत्ति–चित्रों की सजीवता ऋतु से जुड़ी रहती है। प्रायः हाइकु की एक पंक्ति में प्रत्यक्ष कथन द्वारा अथवा सांकेतिक प्रतीकों द्वारा ऋतु का संकेत होता है। हाइकु कवि वस्तु को यथारूप चित्रित करता है। कवि ने जो देखा है‚ उसे और केवल उसे ही प्रस्तुत करता है सोनोमामा आर्थात् यथावत्, अतः उपमा‚ रूपक‚ उत्प्रेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकार हाइकु की काव्य प्रकृत्ति के अनुकूल नहीं हैं। पर अन्योक्ति अथवा समासोक्ति हाइकु की विशिष्टता है। हाइकु जीवन के किसी अनुभूत सत्य की और इंगित करती हुई सांकेतिक अभिव्यक्ति है। शब्दों में जो कुछ कहा गया है‚ वह संकेत मात्र है। जो मूल कथ्य है‚ वह पाठक की ग्रहण शक्ति पर छोड़ दिया गया है।
शिल्प दृष्टि से हाइकु 5–7–5 वर्णक्रम से तीन पंक्तियों की सत्रह अक्षरी अतुकान्त कविता है। आकार की यह लघुता हाइकु का गुण भी है और यही उसकी सीमा भी। स्वानुरूपता‚ अनुप्रास लय और यति हाइकु के शिल्पगत गुण हैं। हाइकु की तीन पंक्तियों में प्रत्येक पंक्ति की सार्थकता आवश्यक है। हाइकु किसी भी विषय पर लिखे जा सकते हैं। जापानी परम्परा के अनुसार विषय की दृष्टि से हाइकु के निम्न भेद किए गए हैं—
1 ऋतु– नव वर्ष‚ ग्रीष्म‚ शरद‚ हेमन्त‚ बसन्त आदि।
2 आकाश– नभ–गंगा‚ चन्द्र‚ नक्षत्र‚ हिम‚ मेघ‚ वर्षा आदि।
3 धरती— पर्वत‚ नदी‚ सागर‚ वन‚ खेत आदि।
4 देवता— भगवान बुद्ध‚ देवता‚ मन्दिर‚ विश्वास‚ तीर्थ त्यौहार आदि।
5 जीवन— मानवीय कार्य व्यापार आदि।
6 पशु–पक्षी तथा अन्य जीव— कीट‚ मेढ़क‚ झींगुर‚ टिड्डे आदि पर भी जापनी में हाइकु रचे गए हैं।
7 वनस्पति— वृक्ष‚ पौधे‚ तृण आदि।
अनेक हाइकु कविताएँ जापानी इतिहास‚ प्राचीन साहित्य‚ पौराणिक सन्दर्भों और लोक–विश्वासों पर आधारित हैं। हाइकु के विषय चीनी साहित्य से भी लिए गए हैं। अनेक प्रसिद्ध हाइकु चीनी सूक्तियों के छायानुवाद हैं।
व्यंग्य जापानी हाइकु का विषय नहीं रहा है। हास्य और व्यंग्य यदि रचना में प्रधान हो जाय तो जापानी में उसे सेनर्यू की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। हाइकु मानव–मन की सौन्दर्य–बोध जनित सूक्ष्म संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का काव्य है। सेनर्यू शुद्ध लौकिक धरातल पर यथार्थ–जगत की विषमताओं और दुर्बलताओं से अपने विषय लेता रहा है। सेनर्यू प्रसिद्ध हाइकु–कविताओं की पैरोडी के रूप में भी लिखे गए हैं।
हाइकु का जेन–दर्शन के साथ गहरा सम्बन्ध रहा है। मध्य–युग के अधिकांश हाइकु–कवि जेन साधक रहे हैं। अनेक हाइकु कविताएँ ऐसे बौद्ध सन्तों द्वारा रची गई है जो अपरिग्रही थे‚ ऐहिक जीवन से निसंग होकर जन–संकुल स्थानों से दूर पर्वत या जंगल के बीच कुटिया बनाकर रहते थे। प्रकृत्ति के साथ उनका सहज साहचर्य था। परन्तु दर्शनिक–चिन्तन और अध्यात्म–साधना ने वह काव्य–दृष्टि दी है जिससे हाइकु कविता का उन्मेष हुआ है। जेन साधना विकल्पहीन और प्रत्यक्ष ज्ञान को स्वीकार करती है जिसे तर्क द्वारा नहीं‚ अन्तर की अनुभूति से ही प्राप्त किया जा सकता ही। मौन–साधना का जेन–पद्धति में विशेष महत्व रहा है। हाइकु में कथ्य और शिल्प की सादगी‚ अभिव्यक्ति की सहजता‚ शब्दों की मितव्ययता और चराचर जगत के प्रति संवेदना की भावना जेन–दृष्टि से उद्भूत है।
हाइकु आज हिन्दी में भी लिखे जा रहे हैं और भारतीय भाषाओं में भी। बंगला में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘जापान–यात्री’ में हाइकु की चर्चा करते हुए उदाहरण रूप में कुछ हाइकु–रचनाओं के बंगला अनुवाद भी दिए। उनका ‘स्फुलिंग’ काव्य–संग्रह हाइकु शैली की दो–तीन पंक्तियों की छोटी कविताओं का संकलन है। अंग्रेजी में इन कविताओं का अनुवाद ‘स्ट्रे बर्डस’ के नाम से हुआ है। असमिया में नीलमणि फूकन ने हाइकु कविताओं के सफल अनुवाद किए हैं जो ‘जापानी कविता’ नामक संकलन में उपलब्ध हैं। गुजराती में हाइकु विशेष रूप से लोकप्रिय हुआ। गुजराती के वरिष्ठ कवि स्नेहरश्मि ने गुजराती में हाइकु के प्रयोग किए और हाइकु क 5–7–5 के वर्णक्रम में ही हाइकु–रचना की। उनकी हाइकु–कविताओं का संग्रह ‘सोनेरी चाँद रूपेरी सूरज’ के नाम से प्रकाशित हुआ। इसमें उनके 359 हाइकु संकलित है जिनमें मूल हाइकु का सा ही उन्मेष भाव और प्रकृति का रूप चित्रण है। स्नेहरश्मि को भारतीय साहित्य का प्रथम सफल हाइकुकार माना जा सकता है।
‘रूपेरु चांदरणु’ और ‘गाबा हाथ जो खेल’ गुजराती के अन्य हाइकु संकलन हैं। स्नेह–रश्मि का दूसरा हाइकु–संकलन Sunrise on Snowpeaks  गत वर्ष ही गुजरात साहित्य अकादमी ने प्रकाशित किया है जिसमें उनके 304 गुजराती हाइकु हैं‚ अंग्रेजी और हिन्दी अनुवादों के साथ।
हिन्दी अनुवाद डॉ० भगवताशरण अग्रवाल ने किए है और अंगेजी अनुवाद स्वयं कवि के हैं। मूल गुजराती रचनाएँ 5–7–5 के वर्ण विधान में हैं और हिन्दी अनुवाद में भी उसी रूप को सुरक्षित रखा गया है।
गुजराती के अतिरिक्त जिस अन्य भाषा में हाइकु काफी संख्या में लिखे गए हैं‚ वह मराठी है। पिछले दशक में कई मराठी पत्रिकाओं ने हाइकु विशेंषाक निकाले हैं। गुजराती की तरह मराठी हाइकु के रूप–शिल्प ग्रहण नहीं कर पाया है। मराठी रचनाओं में मूल हाइकु का 5–7–5 का वर्ण विधान नहीं है पर हाइकु की भाव–चेतना को ग्रहण करने का प्रयत्न हुआ है। मराठी हाइकु में शिरीष पै का योगदान विशेष उल्लेखनीय है। उनके हाइकुओं का एक संग्रह 1986 में ‘हाइकु’ नाम से प्रत्युत्तर प्रकाशन से निकला है जिसके प्रथम खण्ड में उनके 72 स्वतन्त्र मराठी हाइकु हैं और दूसरे खण्ड में जापानी हाइकुओं के मराठी अनुवाद।कुछ वर्ष पूर्व ऋचा गोडबोले के कुछ ‘हाइकु’ श्याम जोशी के चित्रों के साथ धर्म–युग में प्रकाशित हुए थे। सुरेश मथुरै ने हाइकु में अक्षरों की सीमा और पंक्तियों के विषम अनुपात के महत्त्व को स्वीकार करते हुए 5–7–5 के स्थान पर मराठी में 7–9–7 के वर्णक्रम का प्रयोग किया है। कवि नरेश ने हाइकु की पैरोडियां रची हैं जिन्हें मराठी के सेनर्यू कहा जा सकता है।
सिन्धी में नरायण श्याम ने दोहा छन्द के दूसरे‚ तीसर और चौथे चरण को लेकर 11–13–11 मात्राओं की तीन पंक्तियों में हाइकु को 35 मात्राओं के मात्रिक छन्द का रूप दिया है‚ जिसमें पहली और तीसरी पंक्ति तुकान्त होती है। कृष्ण राही के सिन्धी हाइकु उनके काव्य–संग्रह ‘कुमाच’ में और नारायण श्याम के ‘माकभिना राबेल’ में सकलित हैं। डॉ० मोती लाल जोतवाणी ने सिन्धी हाइकुओं के 11–13–11 के 35 मात्रिक छन्द में ही हिन्दी अनुवाद दिए हैं।
मूल हाइकु के 17 अक्षरी वर्ण विधान को उसी रूप में हिन्दी में भी ग्रहण करना कहाँ तक स्वाभाविक और वाछंनीय है‚ यह प्रश्न चर्चा का विषय रहा है। वस्तुतः छन्द–मुक्ति के समस्त आन्दोलनों के पश्चात् भी 5–7–5 वर्णों का 17 अक्षरी विधान हाइकु कविता की मुख्य पहचान रहा है। भाषा–भेद से मराठी के 7–9–7 वर्ण अथवा सिन्धी के  11–13–11 मात्राओं के प्रयोग हाइकु के मूल पैटर्न से बहुत दूर नहीं हैं पर हाइकु के रूप–शिल्प और वस्तु–विधान से पूर्णतः स्वतन्त्र किसी रचना को हाइकु ही क्यों कहा जाए उसे कोई और नाम भी दिया जा सकता है। मिनी कविता‚ कणिका‚ क्षणिका‚ मनके‚ शब्दिकाएं‚ दंशिकाएं‚ सीपिकाएं आदि नामों से अभिहित छोटी–छोटी कविताएँ आज हिन्दी की लगभग प्रत्येक पत्रिका में मिल सकती हैं। हाइकु के नाम से हिन्दी में जो लिखा जाए‚ इसके हाइकु  के मूल स्वरूप और शिल्प की पहचान यथासम्भव आवश्यक है। हाइकु  केवल कविता ही नहीं‚ शब्द की साधना भी है।
मूल जापानी से हाइकुओं  के मेरे अनुवाद ‘जापानी कविताएँ’ शीर्षक पुस्तक में 1977 में प्रकाशित हुए थे।इस पुस्तक में 10 तांका और 40 हाइकु कविताओं के हिन्दी अनुवाद जापानी लिपि में मूल कविता और उसके देवनागरी लिप्यन्तरण के साथ दिए गए हैं। साथ ही हाइकु के पर एक परिचयात्मक निबन्ध भी है। इस पुस्तक के प्रकाशन ने हाइकु के प्रति एक नयी रुचि जागृत की, 1978 में ‘भारतीय हाइकु क्लब’ की स्थापना के साथ ‘हाइकु’ नामक पत्र देवनागरी लिपि में हिन्दी तथा अन्य भारतीय भाषाओं में रची गई हाइकु कविताओं का प्रकाशन करता है और हाइकु पर चर्चा का एक मञ्च भी है।
गत वर्षों में हिन्दी में कई हाइकु संकलनों का प्रकाशन हिन्दी–हाइकु की विशिष्ट उपलब्धि कहा जा सकता है। ये संकलन हैं—शाश्वत क्षितिज, डॉ० भगवतशरण अग्रवाल, खुशबू का सफर डॉ० सुधा गप्ता, हाइकु 575 डॉ० लक्ष्मणप्रसाद नामक, त्रिवेणी- गोविन्द नारायण मिश्र, मालवी हाइकु- सतीश दुबे, Sunsine on Snowpeaks -  स्नेह रश्मिह की चर्चा गुजराती हाइकु के सन्दर्भ में हो चुकी है। डॉ० सुधा गुप्ता का दूसरा हाइकु–संकलन ‘लकड़ी का सपना’ प्रेस में है। डॉ० सत्यपाल चुघ के काव्य–संग्रहों ‘सूर्य और सीकरी’ तथा ‘वामन के चरण’ उनकी हाइकु रचनाएँ भी हैं। संधान–24 में जीवनप्रकाश जोशी ने अपने 57 हाइकु  प्रकाशित किए हैं। हाइकु पर मेरा परिचय–ग्रंथ ‘जापानी हाइकु और आधुनिक हिन्दी कविता’ हिन्दी–विकास पीठ‚ मेरठ से 1983 में प्रकाशित हुआ। ‘हाइकु’ पत्रिका के माध्यम से 70 से अधिक नाम हाइकु के साथ जुड़ चुके हैं।
हिन्दी हाइकु ने जपानी हाइकु की संक्षिप्तता और उसके रूप–शिल्प को अपना लिया है। जापानी और हिन्दी भाषाओं की प्रकृत्ति में अन्तर होते हुए भी आज के हिन्दी हाइकु ने जापानी हाइकु के 5–7–5 के वर्णक्रम के बन्धन को भी स्वीकार कर लिया है। दार्शनिक चिन्तन के धरातल पर हाइकु की काव्यभूमि हिन्दी कविता के लिये अजानी नहीं है। हिन्दी हाइकु किसी निश्चित दर्शन या चिन्तन–धारा के साथ नहीं जुड़ा है। भाव–बोध और विषय–विस्तार हिन्दी का अपना है। यह आवश्यक भी है। हाइकु ने हिन्दी कवि को नयी कल्पनाएँ और नयी भाव–भंगिमा दी है और हिन्दी ने हाइकु को भारतीय संस्कार दिया है। सुधा गुप्ता ने बारहमासा और षड्–ऋतु वर्णन पर हाइकु लिखे हैं। राधेश्याम ने राधाकृष्ण के पौराणिक प्रसंगों को हाइकु का विषय बनाया है। उन्होंने हाइकु–शैली में पूरी रामायण की रचना की है जो प्रकाशन की प्रतीक्षा में है। विक्रम विश्वविद्यालय के डॉ० विजयेन्द्र रामकृष्ण शास्त्री ने अद्वैत–दर्शन पर दर्जनों हाइकु लिखे हैं। सामाजिक–राजनीतिक विसंगतियों‚ सामयिक विषयों और आज की चतुर्दिक व्याप्त हिंसा को भी हिन्दी हाइकुकारों ने अपनी अभिव्यक्ति का विषय बनाया है। ऐसी अनेक रचनाएँ जापानी दृष्टि से हाइकु की अपेक्षा सेनर्यू के अधिक निकट हैं‚ पर हिन्दी में यह भेद नहीं रखा जा सका है।
प्रस्तुत संकलन ‘हाइकु–1989’ हिन्दी के 30 हाइकु कवियों की चुनी हुई 210 हाइकु –रचनाओं का संग्रह है। प्रत्येक रचनाकार की केवल सात रचनाएँ इस संग्रह के लिए चुनी गई है। सभी रचनाएँ इस संग्रह के लिए चुनी गई हैं। सभी रचनाएँ 5–7–5 वर्णक्रम के छन्द–विधान में है और हाइकु की मूल चेतना से दूर नहीं हैं। संग्रह के अंधिकाश कवि ‘भारतीय हाइकु क्लब’ के पत्र ‘हाइकु’ में प्रकाशित हो चुके हैं और हाइकुकार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बना चुके हैं। हिन्दी हाइकु मूल हाइकु के रूप–हाइकु शिल्प को अपना कर भी अपनी निजी पहचान के साथ अभिव्यक्ति की नयी दिशा की खोज में है। ‘हाइकु–1989’ इस खोज का व्यापक परिदृश्य प्रस्तुत करता है और हाइकु के प्रति प्रवर्धमान रुचि का परिचय देता हैं।
‘हाइकु –1989’ हिन्दी हाइकु का प्रथम प्रतिनिधि संकलन कहा जा सकता है और इसी दृष्टि से मैं इसका स्वागत करता हूँ।

5 जनवरी 1989
–डॉ० सत्य भूषण वर्मा
प्रोफेसर तथा अध्यक्ष
जापानी भाषा विभाग
जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय
नई दिल्ली–110067